Natasha

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राजा की रानी

मनुष्य की परलोक की चिन्ता में शायद पराई चिन्ता के लिए कोई स्थान नहीं। नहीं तो, मेरे खाने-पहरने की चिन्ता राजलक्ष्मी छोड़ बैठी, इतना बड़ा आश्चर्य संसार में और क्या हो सकता है? इस गंगामाटी में आए ही कितने दिन हुए होंगे, इन्हीं कुछ दिनों में सहसा वह कितनी दूर हट गयी! अब मेरे खाने के बारे में पूछने आता है रसोइया और मुझे खिलाने बैठता है रतन। एक हिसाब से तो जान बची, पहले की सी जिद्दा-जिद्दी अब नहीं होती। कमजोरी की हालत में अब ग्यारह बजे के भीतर न खाने से बुखार नहीं आता। अब तो जो इच्छा हो वह, और जब चाहूँ तब, खाऊँ। सिर्फ रतन की बार-बार की उत्तेजना और महाराज की सखेद आत्म-भर्त्सना से अल्पाहार का मौका नहीं मिलता- वह बेचारा म्लान मुख से बराबर यही सोचा करता है कि उसके बनाने के दोष से ही मेरा खाना नहीं हुआ। किसी तरह इन्हें सन्तुष्ट करके बिस्तर पर जाकर बैठता हूँ। सामने वही खुला जँगला, और वही ऊसर प्रान्त की तीव्र तप्त हवा। दोपहर का समय जब सिर्फ इस छाया-हीन शुष्कता की ओर देखते-देखते कटना ही नहीं चाहता तब एक प्रश्न मुझे सबसे ज्यादा याद आया करता है, कि आखिर हम दोनों का सम्बन्ध क्या है? प्यार वह आज भी करती है, इस लोक में मैं उसका अत्यन्त अपना हूँ, परन्तु लोकान्तर के लिए मैं उसका उतना ही अधिक पराया हूँ। उसके धर्म-जीवन का मैं साथी नहीं हूँ- हिन्दू घराने की लड़की होकर इस बात को वह नहीं भूली है कि वहाँ मुझ पर दावा करने के लिए उसके पास कोई दलील नहीं, सिर्फ यह पृथ्वीा ही नहीं- इसके परे भी जो स्थान है, उसके लिए पाथेय सिर्फ मुझे प्यार करने से नहीं मिल सकेगा- यह सन्देह शायद उसके मन में खूब बड़े रूप में हो उठा है।

वह रही उन बातों को लेकर और मेरे दिन कटने लगे इस तरह। कर्महीन, उद्देश्यहीन जीवन का दिवारम्भ होता है श्रान्ति में, और अवसान होता है अवसन्न ग्लानि में। अपनी आयु की अपने ही हाथ से प्रतिदिन हत्या करते चलने के सिवा मानो दुनिया में मेरे लिए और कोई काम ही नहीं है। रतन आकर बीच-बीच में हुक्का दे जाता है, समय होने पर चाय पहुँचा देता है- बोलता-चालता कुछ नहीं। मगर उसका मुँह देखने से मालूम होता है कि वह भी अब मुझे कृपा की दृष्टि से देखने लगा है। कभी सहसा आकर कहता, “बाबूजी, जँगला बन्द कर दीजिए, लू की लपट आती है।” मैं कह देता, “रहने दे।” मालूम होता, न जाने कितने लोगों के शरीर के स्पर्श और कितने अपरिचितों के तप्त श्वासों का मुझे हिस्सा मिल रहा है। हो सकता है कि मेरा वह बचपन का मित्र इन्द्रनाथ आज भी जिन्दा हो, और यह उष्ण वायु अभी तुरन्त ही उसे छूकर आई हो। सम्भव है कि वह भी मेरी ही तरह बहुत दिनों के बिछुड़े हुए अपने सुख-दु:ख के बाल्य साथी की याद करता हो। और हम दोनों की वह अन्नबदा- जीजी! सोचता, शायद इतने दिनों में उसे समस्त दु:खों की समाप्ति हो गयी हो। कभी-कभी ऐसा मालूम होता कि इसी कोने में ही तो बर्मा देश है, हवा के लिए तो कोई रुकावट है नहीं, फिर कौन कह सकता है तक समुद्र पार होकर अभया का स्पर्श भी वह मेरे पास तक बहाती हुई नहीं ले आ रही है? अभया की बात याद आते ही कुछ ऐसा हो जाता है कि सहज में वह मेरे मन से निकलना ही नहीं चाहती। रोहिणी भइया शायद इस वक्त काम पर गये हैं और अभया अपने मकान का सदर दरवाजा बन्द करके सिलाई के काम में लगी हुई है। दिन में मेरी तरह वह सो नहीं सकती, शायद किसी बच्चे के लिए छोटी कँथड़ी, या उसकी तरह की किसी तकिये की खोल, या ऐसा ही कोई अपनी गृहस्थी का छोटा-मोटा काम कर रही है।

छाती के भीतर जैसे तीर-सा चुभ जाता। युग-युगान्तर से संचित संस्कार और युग-युगान्तर के भले-बुरे विचारों का अभिमान मेरे रक्त के अन्दर भी तो डोल-फिर रहा है- फिर कैसे मैं इसे निष्कपट भाव से 'दीर्घायु हो' कहकर आशीर्वाद दूँ! परन्तु, मन तो शरम और संकोच के मारे एकबारगी छोटा हुआ जाता है।

काम में लगी हुई अभया की शान्त प्रसन्न छवि मैं अपने हिये की ऑंखों से देख सकता हूँ। उसके पास ही निष्कलंक सोता हुआ बालक है। मानो हाल के खिले हुए कमल के समान शोभा और सम्पद से, गन्ध और मधु से, छलक रहा है। इस अमृत वस्तु की क्या जगत में सचमुच ही जरूरत न थी? मानव-समाज में मानव-शिशु का सम्मान नहीं, निमन्त्रण नहीं, स्थान नहीं, इसी से क्या घृणा भाव से उसको दूर कर देना होगा? कल्याण के धन को ही चिर-अकल्याण में निर्वासित कर देने की अपेक्षा मानव-हृदय का बड़ा धर्म क्या और है ही नहीं?

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